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Manish Shrivastava
Guest
काकोरी एक्शन के बाद झाँसी आने के बाद सबसे पहले आज़ाद ने सत्तू वकील के साथ मास्टर रुद्रनारायण जी से मुलकात की थी। मास्टर जी का जन्म लक्ष्मणपुर अर्थात लखनऊ में हुआ था किंतु उनके क्रांतिकारी जीवन की शुरूआत शाहजहाँपुर में ही हुई थी। पंड़ित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खान एवं ठाकुर रोशन सिंह जैसे वीरों की इसी धरती पर ही उनका संपर्क शचींद्रनाथ बक्शी एवं आज़ाद से 1924 की शाहजहाँपुर में हुई क्रांतिकारियों की बैठक में हुआ था।
हुआ यह था कि काकोरी काण्ड से सम्बंधित एक मीटिंग में देश के सभी हिस्सों से क्रांतिकारियों को न्योता दिया गया था। मास्टर जी का भी शाहजहाँपुर पहुँचना अपरिहार्य ही था। स्टेशन पर उनको लेने आये थे शचींद्र नाथ बक्शी जो एक बीमार आदमी के भेष में शरीर पर कम्बल डाले, ठिठुरते हुए, मास्टर जी का इंतज़ार कर रहे थे। ट्रेन रुकी, मास्टर जी बाहर उतरे, शचींद्र नाथ बक्शी से आँखें मिलीं, मुस्कराहट का आदान प्रदान हुआ और मास्टर जी धीरे- धीरे शचींद्र नाथ बक्शी के पीछे चल दिये।
इस मीटिंग का इंतज़ाम शहर के बाहरी छोर पर एक नवाब के पुराने बंगले में किया गया था। बंगले के सामने वाले हिस्से में ताला लगाया गया था और सभी साथियों के आने-जाने का इंतज़ाम पीछे वाले हिस्से से किया गया था। मास्टर जी जब शचींद्र नाथ बक्शी के साथ वहाँ पहुँचे तो अँधेरा छटा नहीं था। अंदर जाने के लिए लोहे की एक कंटीली बाड़ को रेंगते हुए पार करना था। शचींद्र नाथ बक्शी चूँकि उस रास्ते से वहाँ से कई बार आ-जा चुके थे तो उनको अंदर जाने में कोई तकलीफ नहीं हुई। किन्तु मास्टर जी को उस कंटीली बाड़ पार करने में शरीर पर कई खरोंचें लग गयीं।
मास्टर जी जब अंदर गये तो उनके शरीर से खून टपक रहा था। खून की उन ज़रा सी टपकती बूंदों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और मीटिंग बदस्तूर चलती रही। कुछ देर बाद मास्टर जी ने देखा कि 17-18 बरस का एक नवयुवक उठ कर अंदर चला गया। मीटिंग रुक गयी थी। मास्टर जी को समझ आ गया था कि अंदर गया नवयुवक पार्टी में कोई ऊंचे कद वाला सेनानी है। पाँच मिनट हाथ में मरहम-पट्टी लिए वह नवयुवक उनके पास खड़ा था। बड़े स्नेह से उस नवयुवक ने मास्टर जी की मरहम-पट्टी की और मुस्कुराता हुआ मीटिंग में दोबारा शामिल हो गया।
तभी बिस्मिल की आवाज़ आयी, “इनसे मिलिए मास्टर जी, ये हैं आज़ाद।”
मास्टर जी ने बिस्मिल के द्वारा किये गये इशारे की तरफ देखा तो वही नौजवान हाथ जोड़े खड़ा मुस्कुरा रहा था।
यह मास्टर जी और आज़ाद की पहली मुलाकत थी। उस स्नेह और आत्मीयता ने मास्टर जी को एक ऐसा रिश्ता दिया जिसे मास्टर जी ने आज़ाद के जाने के बाद भी अपने मरते दम तक निभाया।
उस रात उस मीटिंग में शामिल किसी को नहीं पता था कि आने वाले कुछ बरसों में आज़ाद के अज्ञातवास का एक ऐसा दौर शुरू होने वाला है जिसमें मास्टर रुद्रनारायण और आज़ाद देश के क्रांतिकारी इतिहास में बहुत कुछ, एक साथ लिखने वाले हैं।
उस रोज़ मास्टर जी को उनका छोटा भाई और आज़ाद को उनका बड़ा भाई मिल गया था।
मास्टर रुद्रनारायण जी, जिनको बुंदेलखंड़ में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का भीष्म पितामह कहा जाता है, झाँसी के सरस्वती पाठशाला में कला अध्यापक थे। इन्हीं मास्टर जी ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को झाँसी से सदाशिव राव मलकापुरकर जी, भगवान दास माहौर जी और विश्वनाथ गंगाधर वैशम्पायन जी जैसे शिष्यों से नवाज़ा था जिन्होंने आगे चलकर अंग्रेज़ों की नींद उड़ा कर रख दी थी।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।
Feature Image Credit: aajtak.in
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हुआ यह था कि काकोरी काण्ड से सम्बंधित एक मीटिंग में देश के सभी हिस्सों से क्रांतिकारियों को न्योता दिया गया था। मास्टर जी का भी शाहजहाँपुर पहुँचना अपरिहार्य ही था। स्टेशन पर उनको लेने आये थे शचींद्र नाथ बक्शी जो एक बीमार आदमी के भेष में शरीर पर कम्बल डाले, ठिठुरते हुए, मास्टर जी का इंतज़ार कर रहे थे। ट्रेन रुकी, मास्टर जी बाहर उतरे, शचींद्र नाथ बक्शी से आँखें मिलीं, मुस्कराहट का आदान प्रदान हुआ और मास्टर जी धीरे- धीरे शचींद्र नाथ बक्शी के पीछे चल दिये।
इस मीटिंग का इंतज़ाम शहर के बाहरी छोर पर एक नवाब के पुराने बंगले में किया गया था। बंगले के सामने वाले हिस्से में ताला लगाया गया था और सभी साथियों के आने-जाने का इंतज़ाम पीछे वाले हिस्से से किया गया था। मास्टर जी जब शचींद्र नाथ बक्शी के साथ वहाँ पहुँचे तो अँधेरा छटा नहीं था। अंदर जाने के लिए लोहे की एक कंटीली बाड़ को रेंगते हुए पार करना था। शचींद्र नाथ बक्शी चूँकि उस रास्ते से वहाँ से कई बार आ-जा चुके थे तो उनको अंदर जाने में कोई तकलीफ नहीं हुई। किन्तु मास्टर जी को उस कंटीली बाड़ पार करने में शरीर पर कई खरोंचें लग गयीं।
मास्टर जी जब अंदर गये तो उनके शरीर से खून टपक रहा था। खून की उन ज़रा सी टपकती बूंदों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और मीटिंग बदस्तूर चलती रही। कुछ देर बाद मास्टर जी ने देखा कि 17-18 बरस का एक नवयुवक उठ कर अंदर चला गया। मीटिंग रुक गयी थी। मास्टर जी को समझ आ गया था कि अंदर गया नवयुवक पार्टी में कोई ऊंचे कद वाला सेनानी है। पाँच मिनट हाथ में मरहम-पट्टी लिए वह नवयुवक उनके पास खड़ा था। बड़े स्नेह से उस नवयुवक ने मास्टर जी की मरहम-पट्टी की और मुस्कुराता हुआ मीटिंग में दोबारा शामिल हो गया।
तभी बिस्मिल की आवाज़ आयी, “इनसे मिलिए मास्टर जी, ये हैं आज़ाद।”
मास्टर जी ने बिस्मिल के द्वारा किये गये इशारे की तरफ देखा तो वही नौजवान हाथ जोड़े खड़ा मुस्कुरा रहा था।
यह मास्टर जी और आज़ाद की पहली मुलाकत थी। उस स्नेह और आत्मीयता ने मास्टर जी को एक ऐसा रिश्ता दिया जिसे मास्टर जी ने आज़ाद के जाने के बाद भी अपने मरते दम तक निभाया।
उस रात उस मीटिंग में शामिल किसी को नहीं पता था कि आने वाले कुछ बरसों में आज़ाद के अज्ञातवास का एक ऐसा दौर शुरू होने वाला है जिसमें मास्टर रुद्रनारायण और आज़ाद देश के क्रांतिकारी इतिहास में बहुत कुछ, एक साथ लिखने वाले हैं।
उस रोज़ मास्टर जी को उनका छोटा भाई और आज़ाद को उनका बड़ा भाई मिल गया था।
मास्टर रुद्रनारायण जी, जिनको बुंदेलखंड़ में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का भीष्म पितामह कहा जाता है, झाँसी के सरस्वती पाठशाला में कला अध्यापक थे। इन्हीं मास्टर जी ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को झाँसी से सदाशिव राव मलकापुरकर जी, भगवान दास माहौर जी और विश्वनाथ गंगाधर वैशम्पायन जी जैसे शिष्यों से नवाज़ा था जिन्होंने आगे चलकर अंग्रेज़ों की नींद उड़ा कर रख दी थी।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।
Feature Image Credit: aajtak.in
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