Indic Today भरत – मिलाप

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Manish Shrivastava

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सीढ़ी सीधे ना होते हुए गोल-गोल घूमती छत पर जाती थी और सीधे कमरे के सामने खुलती थी। कमरे में जाने के लिए यही एकमात्र दरवाजा था। दरवाजे के दायीं-बायीं ओर दो खिड़कियाँ भी थी जिनपर लोहे के सींखचे लगे हुए थे। घर उस इलाके में था जहाँ सभी छतें आपस में मिली हुई थी।

विद्यार्थी जी ने दरवाजे की कुण्डी पर हाथ मारा तो भगत को ऐसा महसूस हुआ कि दरवाजे की झिरी से कोई परछाई हटी हो।

“कौन है भाई?” अंदर से आवाज़ आयी।

“मैं हूँ डॉक्टर साहब, विद्यार्थी!”

“अरे आप?” तुरंत दरवाजा खुला और आज़ाद विद्यार्थी जी के पैरों की तरफ़ झुक गए। विद्यार्थी जी ने आज़ाद को गले लगाया और कमरे के अंदर आ गए।

“यह महाशय?” आज़ाद ने भगत सिंह की ओर देखा।

“पहचानो!”

लम्बे कद और दुबले-पतले शरीर के ऊपर लुंगी और कोट पहने भगत सिंह मुस्कुरा रहे थे। हल्की-हल्की दाढ़ी और सिर के ऊपर एक ढीली सी पगड़ी बाँधे भगत सिंह को पहचानने में आज़ाद को देर न लगी।

“भगत सिंह?” आश्चर्यचकित आज़ाद उठ खड़े हुए।

“हाँ, पंजाब के शेर सरदार किशन सिंह के होनहार पुत्र सरदार भगत सिंह।” विद्यार्थी जी बोले।

“आजा भाई, कब से तेरा इंतज़ार था।” आज़ाद ने अपनी बाहें फैला दीं।

“मैं भी कब से आपसे मिलने को व्याकुल था, आज़ाद।” भगत सिंह ने आज़ाद को अपनी मज़बूत बाहों में भर लिया।

नवयुग का उदय हो रहा था। कानपुर एक इतिहास का साक्षी बन चुका था। क्रांति की दो अलग धाराएँ अब एक विचारधारा बन अंग्रेज़ों की नाक में दम करने वाली थी। आनेवाला समय भारत का एक ऐसा इतिहास लिखने वाला था जिसे पढ़कर आने वाली पीढ़ियाँ हैरत में पड़ जाने वाली थी। विद्यार्थी जी भारत के भविष्य को गलबहियाँ करते देख मुस्कुरा रहे थे।

“मैं ज़रा छत पर टहलता हूँ। तुम लोग यहीं बैठो।” विधार्थी जी कहते हुए कमरे से बाहर निकल गए।

“पंडित जी आपसे गले मिलकर मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे अंदर एक नयी शक्ति आ गयी है।” भगत सिंह उत्साह से बोले।

“मैं भी तुम्हारे जैसे किसी शांत और समझदार दोस्त की तलाश में था जो दल का नेतृत्व संभाल सके। लोग कहते हैं कि मेरा तो दिमाग बहुत जल्दी गरम हो जाता है।” आज़ाद हँसते हुए बोले।

“अब क्या करना है?” भगत सिंह ने पूछा।

“अभी तो दल ने कुछ बड़ा सोच रखा है और उसके फलीभूत हो जाने के बाद ही कुछ नयी दिशा की ओर देख जायेगा।” आज़ाद धीमे से बोले।

“क्या होने वाला है?”

“वही जो आपको पसंद नहीं। मुझे विद्यार्थी जी बता चुके हैं कि हमारे दल के कुछ कार्यकलाप आपको पसंद नहीं।” आज़ाद ने हिचकिचाते हुए कहा।

“नहीं आज़ाद, बात पसंदगी की नहीं है। मुझे लगता है कि इससे आम जनता के बीच हमारी छवि धूमिल होती है।”

“अभी और कोई चारा भी नहीं है दोस्त। दल के क्रियाकलापों के लिए एक-एक पैसे की तंगी है आजकल।”

“मैं समझ सकता हूँ आज़ाद। फिर भी हमें कोशिश करनी चाहिए कि अगर बिना किसी खून-खराबे के पैसा मिल सके।”

“कोशिश यही रहेगी भगत। तुम्हारी आगे की क्या योजना है?”

“मैं वापस लाहौर जाऊँगा। कुछ साथी हैं वहाँ, जो हमारे जैसे ही सोच रखते हैं। उनको साथ लेकर कुछ करने का इरादा है। जल्दी ही आपको सूचना दूंगा।”

“मैं इंतज़ार करूँगा।”

“तुम लोग बातचीत करो, मैं चलता हूँ।” तभी विद्यार्थी जी दरवाजे पर आकर खड़े हो गए।

“मैं भी आपके साथ चलता हूँ। मुझे फूलबाग़ पर किसी से मिलना है।” आज़ाद बोले।

तीनों नीचे आये। आज़ाद ने दरवाजे पर अंदर से दस्तक दी। दरवाजा खुला और तीनों फूलबाग़ की ओर अपनी-अपनी साइकिलों से चल दिए। फूलबाग़ पहुँचने पर भगत सिंह और विधार्थी जी ने पीछे देखा तो दूर-दूर तक आज़ाद का निशान नहीं था। भगत सिंह मुस्कुरा दिए।

कुछ दिनों बाद लाहौर में भगत सिंह को ख़बर मिली कि क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक उल्ला खाँ, चंद्रशेखर आज़ाद व अन्य सहयोगियों की सहायता से काकोरी के पास एक ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया।

आज़ाद का ‘बड़ा काम’ फलीभूत हो गया था। आंदोलन की नयी दिशा अब तय होने वाली थी। कुछ दिन बाद भगत सिंह को एक और ख़बर मिली।

काकोरी काण्ड के लगभग सभी मुजरिम गिरफ़्तार हो चुके थे।

लेकिन आज़ाद अभी भी ‘आज़ाद’ थे।



भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।

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