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Manish Shrivastava
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सत्य क्या है व क्या है असत्य? मिथ्या क्या है?
भारतीय दर्शन अनुसार सरल परिभाषा तो यही है कि जो कभी परिवर्तित ना हो, वह सत्य, जो परिवर्तित हो वह असत्य व जिसका आभास हो किन्तु वह प्रकटरूप में विधमान ना हो वह मिथ्या है।
शांतिपर्व महाभारत 162.5 में कहा गया है कि-
यहीं श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि-
सनातन का अर्थ ही है कि जो शाश्वत हो, सदा हो तथा सर्वसत्य हो। जिसका शाश्वत महत्व हो वही सनातन है। जिस प्रकार सत्य सनातन है। वह सत्य जो अनंत है वह ही सनातन या शाश्वत है। जो ना प्रारंभ हुआ व ना ही जिसका अंत होगा इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म है।
हम सभी जानते हैं कि “धर्म” शब्द की उत्पत्ति “धारण” शब्द से हुई है। (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है) यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
धारणात्मक नियमों का समादर ही धर्म है । व्यास जी की इस परिभाषा का अर्थ वस्तुतः “सनातन धर्म” नाम के पीछे भी यही अर्थ अभिप्रेत है। भागवत में जो तीस लक्षणों वाला धर्म बताया गया है व मनु ने जिसे दस लक्षणों वाला धर्म बताया है, वही तो मनुष्य मात्र के लिए सनातन धर्म है-
भारतवर्ष के इस गूढ़ दर्शन व सिद्धांतों के साथ भेदभाव होना तब आरम्भ हुआ जब आधुनिक सभ्यता ने अपने पैर पसारने आरम्भ किये। देश विशेष की संस्कृति को उस देश की जाति व समुदाय की आत्मा कहा गया है। संस्कृति द्वारा ही हम देश, जाति या समुदाय के पूर्ण संस्कारों का पालन करते है तथा अपने जीवन के आदर्शों, मूल्यों, आदि का निर्धारण करते हैं।
आधुनिक शिक्षा के वाहक कई शताब्दियों से विज्ञान का सहारा लेते हुए भारतीय सभ्यता के मूल विचारों को मिथ्या कह कर नयी पीढ़ी को भरमाने का प्रसार करते आ रहे हैं। उनका एक मात्र प्रयास यही है कि हम अपने धर्म व संस्कृति को आधुनिक दृष्टि से देखें। इसी के चलते धर्मनिरपेक्षता के नवीन सिद्धांत ने धर्म को एक कोने में धकेल दिया है। ज्ञान के अपेक्षित स्वरूप की विज्ञान द्वारा अपेक्षा कर उसका मूल स्वरुप ही नष्ट कर देने के प्रयास गतिमान हैं। वर्तमान पीढ़ी भौतिकवाद में भटककर रह गयी है तथा भारतवर्ष के सांस्कृतिक दृष्टिकोण को अपने मूल लक्ष्य से भटकाने के निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं।
साकेत सुर्येश जी की लेखनी इन विषयों पर निरंतर चलती रहती है। उनके विचार तथा उनकी स्पष्टवादिता उनके लेखों से सदा झलकती है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता के सन्दर्भ में गंभीर चिंतन करते हुए उन्होंने अपनी इस नवीन कृति “एक स्वर, सहस्र प्रतिध्वनियाँ” जो कि एक लघु कथा संग्रह को हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। १२० पृष्ठों की इस पुस्तक में ११ लघु कथाओं का अनुपम व संकलनीय संग्रह है। पौराणिक कथाओं को समसामयिक विषयों के साथ जोड़ने का यह एक अनूठा प्रयोग है जिसमें साकेत पूर्ण रूप से सफल हुए हैं।
पहली कथा पुलोमा के कुछ पृष्ठ पलटने के पश्चात आप समझ जाते हैं कि यह कथा संग्रह आपको कहाँ ले जाने वाला है जब लेखक साकेत, स्वामी द्वारा कहलवाते हैं-
“ महाभारत के सन्दर्भ में कई मत है, कुछ ऐसे भी कि महाभारत को घर में पढ़ने से कलह होती है। कुछ राजहंसो की प्रकृति के मनुष्य हैं जो दिव्य ग्रंथों में दोष ही ढूंढते हैं किन्तु शेक्सपियर के उपन्यासों में निहितार्थ ढूंढ कर स्वयं को कृतार्थ पाते हैं।”
यह पढ़ते हुए जब आप उस पंक्ति तक पहुँचते हैं जहाँ कथा की नायिका वसुधा को कहा जाता है कि “शरीर तो आन्दोलन की सम्पति है” तो आप चौंक उठते हैं। “शरीर एक साधन है, आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं” जैसे वाक्य आपको अंदर से हिला डालते हैं।
कथा “तुलसी विवाह” की नायिका गुंजा से यह सुनना कि जो जातियां इतिहास से नहीं सीखती वह स्वयं इतिहास बन जाती हैं, एक सुखद अनुभव देता है। भरी सभा में नायिका गुंजा धर्म व राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए कहती है-
“सनातन की निरंतरता का कारण ही उसका प्रवाह है, उसका गतिमान होना है। यदि हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण वर्तमान को ना स्वीकारें व परिवर्तन जो नकार दें तो हमारा विनाश टल तो सकता है किन्तु रुक नहीं सकता।”
कथा “शैलसुता” पढ़ते हुए मैं स्वयं अत्यंत भावुक हो उठा था। इस बरस मैंने अपनी बिटिया को विवाह पश्चात एक नए संसार में प्रविष्ट होते देखा है। वह अनुभव अपने आप में ही झिंझोड़ देने वाला होता है। जब आप इस कथा में गौरी, जो की हिमवानपुत्री हैं, को कहते हुए सुनते है कि “प्रेम में प्राप्य-अप्राप्य अर्थहीन है” तो आप भाव विभोर हो उठते हैं। मुझ चिंतित पिता को गौरी की जगह अपनी बिटिया विदा के समय कहते हुए सुनाई दे रही थी कि –
“इस संसार में अपना स्थान, अपना उद्देश्य हर पुत्री को ढूंढना ही होता है। एक पुत्री, पिता के स्नेहसिक्त संरक्षण में सदैव तो रह नहीं सकती? पुत्रियों को भी तो अपने प्रारब्ध की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना होगा। जिस दिन स्त्रियों को हम उनके सौन्दर्य से बाँध कर घरों कोई ड्योढ़ी में समेट देंगे तो ना ही लोपामुद्रा जन्म लेंगीं व ना ही देवी गार्गी।”
कथा “चंद्रघंटा” में जब पिता हिमवान पुत्री गौरी को कहते हैं कि-
“स्त्री का चरित्र जल की भांति होता है। वह स्वयं को उस पात्रानुसार ढाल लेती है जिस पात्र में उसको डाला जाए। नारी स्वभावतःसंरक्षक है।”
आपको प्रतीत होता है कि आप यही सब अपनी पुत्री को कहना चाहते थे किन्तु आपके पास शब्द नहीं थे।
कथाओं व उपन्यासों की रचना कभी-कभी आत्म संतुष्टि के लिए भी की जाती है किन्तु इस रचना को पढ़ने के बाद आपको यह विश्वास हो उठेगा कि यह रचना वर्तमान पीढ़ी हेतु एक मार्ग निर्धारित करने का कार्य कर चुकी है। इस रचना को आप साहित्यिक योगदान से परे देखते हुए समाज कल्याण से परिपूर्ण भावनात्मक कृति की संज्ञा दे सकते हैं।
यह अलौकिक कथाएं जहाँ आपको पौराणिक काल में ले जाकर समसामयिक संदर्भ द्वारा सात्विक व तामसिक तत्वों का द्वंद्व दर्शाती हैं वहीं दूसरी ओर अन्य सभ्यताओं के हम पर हावी होने के असफल प्रयत्नों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत करती हैं।
इन सभी कथाओं का स्वर एक ही हैं किन्तु इनकी ध्वनियाँ युवावर्ग को विशेषतः स्त्री वर्ग को उनकी संस्कृति से दूर नहीं जाने देंगी। यह अनुपम गाथाएं भारतीय संस्कृति के वह स्वर हैं जिनकी प्रतिध्वनियाँ हमको हर भारतीय के ह्रदय तक पहुंचानी होंगी।
नोशन प्रेस द्वारा प्रस्तुत यह सभी कथाएं हिंदी भाषा में प्रस्तुत की गयी हैं। साकेत सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्यरत हैं तथा अपनी धर्मपत्नी और एक पुत्री के साथ दिल्ली, भारत में रहते हैं। साकेत एक गंभीर लेखक और स्तंभकार हैं, जो स्वराज्य, ऑपइंडिया, जागरण और अन्य प्रमुख प्रकाशनों के लिए अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। वह कविता, इतिहास, पौराणिक कथाओं, राजनीति और व्यंग्य को अपने पसंदीदा लेखन मानते हैं। अपनी पुस्तक “The Revolutionary : Ram Prasad Bismil’s Autobiography From the Death Row” से वो पहले भी चर्चा में रह चुके हैं। वहीं उनकी सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्यों की पुस्तक “गंजहों की गोष्ठी” में उनके कटाक्षों ने सभी को चौंका दिया था।
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भारतीय दर्शन अनुसार सरल परिभाषा तो यही है कि जो कभी परिवर्तित ना हो, वह सत्य, जो परिवर्तित हो वह असत्य व जिसका आभास हो किन्तु वह प्रकटरूप में विधमान ना हो वह मिथ्या है।
शांतिपर्व महाभारत 162.5 में कहा गया है कि-
“सत्यं धर्मस्तपो योग:”
अर्थात सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है व सत्य ही योग है।
अर्थात सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है व सत्य ही योग है।
यहीं श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि-
“सत्यं ब्रह्म सनातनम्”
अर्थात सदा रहने वाला परमेश्वर ही सत्य है।
अर्थात सदा रहने वाला परमेश्वर ही सत्य है।
सनातन का अर्थ ही है कि जो शाश्वत हो, सदा हो तथा सर्वसत्य हो। जिसका शाश्वत महत्व हो वही सनातन है। जिस प्रकार सत्य सनातन है। वह सत्य जो अनंत है वह ही सनातन या शाश्वत है। जो ना प्रारंभ हुआ व ना ही जिसका अंत होगा इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म है।
हम सभी जानते हैं कि “धर्म” शब्द की उत्पत्ति “धारण” शब्द से हुई है। (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है) यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।
धारणात्मक नियमों का समादर ही धर्म है । व्यास जी की इस परिभाषा का अर्थ वस्तुतः “सनातन धर्म” नाम के पीछे भी यही अर्थ अभिप्रेत है। भागवत में जो तीस लक्षणों वाला धर्म बताया गया है व मनु ने जिसे दस लक्षणों वाला धर्म बताया है, वही तो मनुष्य मात्र के लिए सनातन धर्म है-
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्॥
भारतवर्ष के इस गूढ़ दर्शन व सिद्धांतों के साथ भेदभाव होना तब आरम्भ हुआ जब आधुनिक सभ्यता ने अपने पैर पसारने आरम्भ किये। देश विशेष की संस्कृति को उस देश की जाति व समुदाय की आत्मा कहा गया है। संस्कृति द्वारा ही हम देश, जाति या समुदाय के पूर्ण संस्कारों का पालन करते है तथा अपने जीवन के आदर्शों, मूल्यों, आदि का निर्धारण करते हैं।
आधुनिक शिक्षा के वाहक कई शताब्दियों से विज्ञान का सहारा लेते हुए भारतीय सभ्यता के मूल विचारों को मिथ्या कह कर नयी पीढ़ी को भरमाने का प्रसार करते आ रहे हैं। उनका एक मात्र प्रयास यही है कि हम अपने धर्म व संस्कृति को आधुनिक दृष्टि से देखें। इसी के चलते धर्मनिरपेक्षता के नवीन सिद्धांत ने धर्म को एक कोने में धकेल दिया है। ज्ञान के अपेक्षित स्वरूप की विज्ञान द्वारा अपेक्षा कर उसका मूल स्वरुप ही नष्ट कर देने के प्रयास गतिमान हैं। वर्तमान पीढ़ी भौतिकवाद में भटककर रह गयी है तथा भारतवर्ष के सांस्कृतिक दृष्टिकोण को अपने मूल लक्ष्य से भटकाने के निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं।
साकेत सुर्येश जी की लेखनी इन विषयों पर निरंतर चलती रहती है। उनके विचार तथा उनकी स्पष्टवादिता उनके लेखों से सदा झलकती है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता के सन्दर्भ में गंभीर चिंतन करते हुए उन्होंने अपनी इस नवीन कृति “एक स्वर, सहस्र प्रतिध्वनियाँ” जो कि एक लघु कथा संग्रह को हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। १२० पृष्ठों की इस पुस्तक में ११ लघु कथाओं का अनुपम व संकलनीय संग्रह है। पौराणिक कथाओं को समसामयिक विषयों के साथ जोड़ने का यह एक अनूठा प्रयोग है जिसमें साकेत पूर्ण रूप से सफल हुए हैं।
पहली कथा पुलोमा के कुछ पृष्ठ पलटने के पश्चात आप समझ जाते हैं कि यह कथा संग्रह आपको कहाँ ले जाने वाला है जब लेखक साकेत, स्वामी द्वारा कहलवाते हैं-
“ महाभारत के सन्दर्भ में कई मत है, कुछ ऐसे भी कि महाभारत को घर में पढ़ने से कलह होती है। कुछ राजहंसो की प्रकृति के मनुष्य हैं जो दिव्य ग्रंथों में दोष ही ढूंढते हैं किन्तु शेक्सपियर के उपन्यासों में निहितार्थ ढूंढ कर स्वयं को कृतार्थ पाते हैं।”
यह पढ़ते हुए जब आप उस पंक्ति तक पहुँचते हैं जहाँ कथा की नायिका वसुधा को कहा जाता है कि “शरीर तो आन्दोलन की सम्पति है” तो आप चौंक उठते हैं। “शरीर एक साधन है, आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं” जैसे वाक्य आपको अंदर से हिला डालते हैं।
कथा “तुलसी विवाह” की नायिका गुंजा से यह सुनना कि जो जातियां इतिहास से नहीं सीखती वह स्वयं इतिहास बन जाती हैं, एक सुखद अनुभव देता है। भरी सभा में नायिका गुंजा धर्म व राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए कहती है-
“सनातन की निरंतरता का कारण ही उसका प्रवाह है, उसका गतिमान होना है। यदि हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण वर्तमान को ना स्वीकारें व परिवर्तन जो नकार दें तो हमारा विनाश टल तो सकता है किन्तु रुक नहीं सकता।”
कथा “शैलसुता” पढ़ते हुए मैं स्वयं अत्यंत भावुक हो उठा था। इस बरस मैंने अपनी बिटिया को विवाह पश्चात एक नए संसार में प्रविष्ट होते देखा है। वह अनुभव अपने आप में ही झिंझोड़ देने वाला होता है। जब आप इस कथा में गौरी, जो की हिमवानपुत्री हैं, को कहते हुए सुनते है कि “प्रेम में प्राप्य-अप्राप्य अर्थहीन है” तो आप भाव विभोर हो उठते हैं। मुझ चिंतित पिता को गौरी की जगह अपनी बिटिया विदा के समय कहते हुए सुनाई दे रही थी कि –
“इस संसार में अपना स्थान, अपना उद्देश्य हर पुत्री को ढूंढना ही होता है। एक पुत्री, पिता के स्नेहसिक्त संरक्षण में सदैव तो रह नहीं सकती? पुत्रियों को भी तो अपने प्रारब्ध की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना होगा। जिस दिन स्त्रियों को हम उनके सौन्दर्य से बाँध कर घरों कोई ड्योढ़ी में समेट देंगे तो ना ही लोपामुद्रा जन्म लेंगीं व ना ही देवी गार्गी।”
कथा “चंद्रघंटा” में जब पिता हिमवान पुत्री गौरी को कहते हैं कि-
“स्त्री का चरित्र जल की भांति होता है। वह स्वयं को उस पात्रानुसार ढाल लेती है जिस पात्र में उसको डाला जाए। नारी स्वभावतःसंरक्षक है।”
आपको प्रतीत होता है कि आप यही सब अपनी पुत्री को कहना चाहते थे किन्तु आपके पास शब्द नहीं थे।
कथाओं व उपन्यासों की रचना कभी-कभी आत्म संतुष्टि के लिए भी की जाती है किन्तु इस रचना को पढ़ने के बाद आपको यह विश्वास हो उठेगा कि यह रचना वर्तमान पीढ़ी हेतु एक मार्ग निर्धारित करने का कार्य कर चुकी है। इस रचना को आप साहित्यिक योगदान से परे देखते हुए समाज कल्याण से परिपूर्ण भावनात्मक कृति की संज्ञा दे सकते हैं।
यह अलौकिक कथाएं जहाँ आपको पौराणिक काल में ले जाकर समसामयिक संदर्भ द्वारा सात्विक व तामसिक तत्वों का द्वंद्व दर्शाती हैं वहीं दूसरी ओर अन्य सभ्यताओं के हम पर हावी होने के असफल प्रयत्नों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत करती हैं।
इन सभी कथाओं का स्वर एक ही हैं किन्तु इनकी ध्वनियाँ युवावर्ग को विशेषतः स्त्री वर्ग को उनकी संस्कृति से दूर नहीं जाने देंगी। यह अनुपम गाथाएं भारतीय संस्कृति के वह स्वर हैं जिनकी प्रतिध्वनियाँ हमको हर भारतीय के ह्रदय तक पहुंचानी होंगी।
नोशन प्रेस द्वारा प्रस्तुत यह सभी कथाएं हिंदी भाषा में प्रस्तुत की गयी हैं। साकेत सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्यरत हैं तथा अपनी धर्मपत्नी और एक पुत्री के साथ दिल्ली, भारत में रहते हैं। साकेत एक गंभीर लेखक और स्तंभकार हैं, जो स्वराज्य, ऑपइंडिया, जागरण और अन्य प्रमुख प्रकाशनों के लिए अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखते हैं। वह कविता, इतिहास, पौराणिक कथाओं, राजनीति और व्यंग्य को अपने पसंदीदा लेखन मानते हैं। अपनी पुस्तक “The Revolutionary : Ram Prasad Bismil’s Autobiography From the Death Row” से वो पहले भी चर्चा में रह चुके हैं। वहीं उनकी सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्यों की पुस्तक “गंजहों की गोष्ठी” में उनके कटाक्षों ने सभी को चौंका दिया था।
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